Gurukul Kangri Vishav Vadyala Hardwar Vice Chancellor gets copy of proceedings of Lahore Consipiracy Case 1930 from Pakistan. This is reported by Shalini Joshi BBC Correspondent
लाहौर केस के दस्तावेज़ भारत में
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे विवादास्पद और चर्चित मुक़दमे 'लाहौर षडयंत्र केस' के कोर्ट ट्रायल के दस्तावेज़ पहली बार भारत लाए गए हैं.
इस मुकद्दमे के दस्तावेज़ की प्रति लाहौर हाईकोर्ट ने हरिद्वार स्थित गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय को सौंपी हैं.
क़रीब 2000 पन्ने के इस दुर्लभ दस्तावेज़ को विश्वविद्यालय के अतिविशिष्ट श्रद्धानंद संग्रहालय में रखा गया है.
उल्लेखनीय है कि आठ अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा में बम फेंकने के बाद खुद ही गिरफ्तारी दे दी थी. उनका मक़सद था अदालत को मंच बनाकर अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करना.
बाद में जब ये पाया गया कि भगत सिंह ब्रिटिश पुलिस अधीक्षक जेपी साण्डर्स की हत्या में भी शामिल थे तो उन पर और उनके दो साथियों राजगुरू और सुखदेव पर देशद्रोह के साथ-साथ हत्या का भी मुक़द्दमा चला जो लाहौर षडयंत्र केस या भगत सिंह ट्रायल के नाम से इतिहास में विख्यात है.
अहम दस्तावेज़
इन दस्तावेज़ों में यह शामिल है कि मुक़दमों के दौरान भगत सिंह और उनके साथियों ने क्या कहा था.
इसके अनुसार भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंकने के बाद जो पर्चे फेंके थे उसमें लिखा था, "किसी आदमी को मारा जा सकता है लेकिन विचार को नहीं."
भगत सिंह ने 'बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन.विचार हमेशा जीवित रहते हैं' और 'बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिये ऊंची आवाज जरूरी है' जैसी बातें भी पर्चों में लिखी थीं.
हमारे लिये ये गर्व की बात है. विश्वविद्यालय की स्थापना गुजरांवला में ही हुई थी जो अब पाकिस्तान में है. मैं पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के निमंत्रण पर लाहौर गया हुआ था. वहां उन्होंने वो कक्ष और रिकॉर्ड दिखाए जो इस मुकद्दमे से जुड़े हुए थे. मैंने इसकी एक प्रति के लिये अनुरोध किया और मुझे खुशी है कि पाकिस्तान हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार कर लिया
प्रोफ़ेसर स्वतंत्र कुमार, कुलपति, कांगड़ी विश्वविद्यालय
इतिहासकार कहते हैं कि इसी घटना के बाद उन पर देशद्रोह का मुकद्दमा चला जिसने एकबारगी पूरे ब्रिटिश राज को थर्रा दिया था और देश भर में जन-आक्रोश उमड़ पड़ा था.
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर स्वतंत्र कुमार इन दस्तावेज़ों को भारत लाए जाने को बड़ी उपलब्धि मानते हैं.
वे कहते हैं, "हमारे लिये ये गर्व की बात है. विश्वविद्यालय की स्थापना गुजरांवला में ही हुई थी जो अब पाकिस्तान में है. मैं पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के निमंत्रण पर लाहौर गया हुआ था. वहां उन्होंने वो कक्ष और रिकॉर्ड दिखाए जो इस मुकद्दमे से जुड़े हुए थे. मैंने इसकी एक प्रति के लिये अनुरोध किया और मुझे खुशी है कि पाकिस्तान हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार कर लिया."
वो कहते हैं, "कई बार आदमी काम करता है और उसे अंजाम पता नहीं होता लेकिन इन तीन युवकों का जज़्बा देखकर लगता है कि उन्होंने अंजाम ही सबसे आगे रखा और फाँसी के लिये ही तैयारी की."
पाँच मई 1930 को शुरू हुआ ये मुक़द्दमा 11 सितंबर 1930 तक चला था.
इतिहासकार कहते हैं कि ये मुकद्दमा इसलिये भी अभूतपर्व था क्योंकि इसमें क़ानूनी न्याय तो दूर की बात न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत को भी तिलांजलि दे दी गई थी जिसके तहत हर अभियुक्त को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाता है.
वे बताते हैं कि सरकार ने एक अध्यादेश निकालकर ऐसे अधिकार हासिल कर लिये जिसकी मदद से वो गवाही के सामान्य नियमों और अपील के अधिकार के बिना भगतसिंह और उनके साथियों पर मुकद्दमा चला सकती थी.
तमाम विरोधी स्वरों और गांधीजी के आग्रह के बावजूद 23 मार्च 1931 को तीनों को फांसी पर लटका दिया गया.
इन दस्तावेज़ों में पुलिस अधिकारियों का पक्ष और जजों की टिप्पणियों के साथ अदालत की हर कार्यवाही का विस्तार से वर्णन है.
जजों का फ़ैसला सहित पूरी कार्यवाही फारसी में लिखी गई है हालांकि नाम अंग्रेजी में लिखे हुए हैं.
संग्रहालय के निदेशक डॉ. प्रभात कहते हैं, "भगत सिंह की विचारधारा को लेकर कई धारणाएँ और मान्यताएँ है और उनके अध्ययन में ये दस्तावेज़ काफ़ी उपयोगी होगा."